दीपाली तायडे| भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के अधिकार एवं मान सम्मान के लिए संघर्ष करने वाले महानायकों में बाबा गाडगे का नाम अग्रिम पंक्ति में आता है। गाड़गे बाबा का जन्म 23 फरवरी, 1876 में महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेगाँव नामक स्थान हुआ था। वे उस समय कहीं सछूत तो कहीं अछूत समझी जाने वाली धोबी जाति के एक गरीब परिवार में जन्में थे। उनका पूरा नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाड़ोकर था। उनकी माता सकुबाई और पिता झिंगराजी घर में उन्हें प्यार से ‘डेबू जी’ कहकर बुलाते थे। वे अपने साथ हमेशा मिट्टी का मटके जैसा एक गोलाकार पात्र रखते थे। इस पात्र को महाराष्ट्र में गाड़गा कहा जाता है। वे इसी पात्र में खाना-पीना करते थे। इसी कारण लोग उन्हें गाडगे बाबा या गाड़गे महाराज कहकर पुकारने लगे।
गाडगे महाराज को औपचारिक रूप से पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला पर उन्होंने स्वाध्याय से ही थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख लिया था। उन्होंने हमेशा शिक्षा को बहुत अधिक महत्व दिया। वे कहते थे कि “यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े तो उसे बेचकर भी शिक्षा ग्रहण करो। हाथ पर रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर शिक्षा के बिना जीवन अधूरा है।” वे अपने शिक्षा पर उपदेश देते हुए सबके सामने डॉ.अम्बेडकर का उदाहरण रख कर कहते कि “देखा! बाबासाहेब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा से कितना पढ़े। शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है। एक गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियाँ हासिल कर सकता है।” गाड़गे बाबा ने शिक्षा का प्रकाश फैलाने के लिए 31 शिक्षण संस्थाओं तथा 100 से भी अधिक अन्य अनौपचारिक संस्थाओं की स्थापना की थी। उन्होंने डॉ.आंबेडकर द्वारा स्थापित पिपल्स एजुकेशन सोसाएटी को पंढरपुर की अपनी धर्मशाला छात्रों के हॉस्टल के लिए दान कर दी थी।
गाड़गे बाबा सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आजीवन संघर्षरत करते हुए समाज को जागरूक करते रहे। सामाजिक कार्य और जनसेवा ही उनका धर्म था। वे जातिप्रथा, अस्पृश्यता, ब्राह्मणवाद, पाखण्डवाद, कर्मकांडों, मूर्ति पूजा और सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ रहे। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था ब्राह्मणवादियों ने अपने स्वार्थसिद्धि के लिए बनाई है। हिंदू धर्म की झूठी धारणाओं के बल पर ही ब्राह्मणवादी आम जनता का शोषण करते हैं। इसीलिए वे लोगों को अंधभक्ति न करने और धार्मिक कुप्रथाओं से दूर रहने की सलाह देते थे।
गाडगे बाबा समाज में हमेशा यही उपदेश देते थे कि सभी मनुष्य एक समान हैं, इसलिए एक-दूसरे के साथ प्रेम और भाईचारे का व्यवहार करो। वे साफ-सफाई पर विशेष बल देते थे औऱ हमेशा अपने साथ एक झाडू रखते थे। वे कहते थे कि “सुगंध देने वाले फूलों को पात्र में रखकर भगवान की पत्थर की मूर्ति पर अर्पित करने के बजाय चारों ओर बसे हुए लोगों की सेवा के लिए अपना खून खपाओ। भूखे लोगों को रोटी खिलाई, तो ही तुम्हारा जन्म सार्थक होगा। पूजा के उन फूलों से तो मेरा झाड़ू ही श्रेष्ठ है।” संत गाडगे महाराज कीर्तन गाते हुए साफ-सफ़ाई करते रहते। इन कीर्तनों में वे कबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि संतों के वचन सुनाते थे। छुआछूत निवारण, शराबबंदी, हिंसाबन्दी, पशुबलि प्रथा आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे। उन्होंने जनता के पैसे से ही स्कूल और चिकित्सालय खोले। अपने समाज को साफ-सुथरे रहने की शिक्षा दी।
गाड़गे महाराज और डॉ.अम्बेडकर एक-दूसरे के कार्यों से बेहद प्रभावित थे। इसी का असर था कि साधु-संतों से दूर रहने वाले अपने बाबासाहेब गाडगे बाबा का बहुत सम्मान करते थे। वे गाडगे बाबा से समय-समय पर मिलते रहते थे और समाज-सुधार संबंधी मामलों पर उनसे सलाह-मशविरा भी करते थे। दोनों में प्रेम, सम्मान और आत्मीयता का रिश्ता था। गाड़गे बाबा के समाज-सुधार सम्बन्धी कार्यों को देखते हुए ही डा. अम्बेडकर ने उन्हें जोतिबा फुले के बाद सबसे बड़ा त्यागी जनसेवक कहा था। डा. अम्बेडकर की मृत्यु का गाड़गे बाबा को ऐसा धक्का लगा कि उनके जाने के मात्र 14 दिन बाद ही गाड़गे बाबा भी 20 दिसम्बर, 1956 को इस दुनिया से चले गए।
आज उनका स्मृतिदिवस है……. अश्रुपूरित श्रद्धाजंलि🙏